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तन्न॒ इन्द्र॒स्तद्वरु॑ण॒स्तद॒ग्निस्तद॑र्य॒मा तत्स॑वि॒ता चनो॑ धात्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tan na indras tad varuṇas tad agnis tad aryamā tat savitā cano dhāt | tan no mitro varuṇo māmahantām aditiḥ sindhuḥ pṛthivī uta dyauḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। नः॒। इन्द्रः॑। तत्। वरु॑णः। तत्। अ॒ग्निः। तत्। अ॒र्य॒मा। तत्। स॒वि॒ता। चनः॑। धा॒त्। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥ १.१०७.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:107» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:25» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (मित्रः) मित्रजन (वरुणः) श्रेष्ठ विद्वान् (अदितिः) अखण्डित आकाश (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) भूमि (उत) और (द्यौः) सूर्य आदि का प्रकाश (नः) हमको (मामहन्ताम्) आनन्दित करते हैं (तत्) वैसे (इन्द्रः) बिजुली वा धनाढ्य जन (नः) हमारे लिये (तत्) उस धन वा अन्न को अर्थात् उनके दिये हुए धनादि पदार्थ को (वरुणः) जल वा गुणों से उत्कृष्ट (तत्) उस शरीरसुख को (अग्निः) पावक अग्नि वा न्यायमार्ग में चलानेवाला विद्वान् (तत्) उस आत्मसुख को (अर्यमा) नियमकर्त्ता पवन वा न्यायकर्त्ता सभाध्यक्ष (तत्) इन्द्रियों के सुख को (सविता) सूर्य वा धर्म कार्य्यों में प्रेरणा करनेवाला धर्मज्ञ जन (तत्) उस सामाजिक सुख और (चनः) अन्न को (धात्) धारण करता वा धारण करे ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे संसारस्थ पृथिवी आदि पदार्थ सुख देनेवाले हैं, वैसे ही विद्वानों को सुख देनेवाले होना चाहिये ॥ ३ ॥इस सूक्त में समस्त विद्वानों के गुणों का वर्णन है। इससे इस सूक्त की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह १०७ एकसौ सातवाँ सूक्त और २५ पच्चीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

यथा मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्वा मामहन्तां तत् तथेन्द्रो नस्तद्वरुणस्तदग्निस्तदर्यमा तत् सविता तच्च नो धात् ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) धनम्। अन्नम् (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) विद्युत् धनाध्यक्षो वा (तत्) शारीरं सुखम् (वरुणः) जलं गुणैरुत्कृष्टो वा (तत्) आत्मसुखम् (अग्निः) प्रसिद्धो भौतिको न्यायमार्गे गमयिता विद्वान् वा (तत्) इन्द्रियसुखम् (अर्यमा) नियन्ता वायुर्न्यायकर्त्ता वा (तत्) सामाजिकं सुखम् (सविता) सूर्यो धर्मकृत्येषु प्रेरको वा (चनः) अन्नम् (धात्) धारयेत् (तन्नो मित्रो०) इति पूर्ववत् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिर्यथा संसारस्थाः पृथिव्यादयः पदार्थाः सुखप्रदाः सन्ति तथैव सुखप्रदातृभिर्भवितव्यम् ॥ ३ ॥अत्र विश्वेषां देवानां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति सप्तदशतमं सूक्तं पञ्चविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे संसारातील पृथ्वी इत्यादी पदार्थ सुख देणारे असतात तसे विद्वानांनी सुख देणारे बनले पाहिजे. ॥ ३ ॥